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गुरुर से क्या देखे, जब वजूद उसका नहीं है।
खामोशी में क्या कहें हम, जब बेपरवाह हम नहीं है।
ख्वाबों में क्या रहें हम, जब हकीकत कुछ और है।
मुलाकात को कैसे भूलें हम, जब इंतजार वो ही है।
Why feel pride over something, which has no weightage?
What should I say in silence when I am not careless?
Why should I remain in dreams when the reality is something else?
How can I forget the meeting when it is a period of longing?
- डॉ. ईरा शाह
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