हारे हुए को क्या जीताना, वो तो खुद हारा है,
बेगाने को क्या समझाना, वो तो खुद समझ के बाहर है।
आनंद में किसे बिठाना, मानव तो खुद भागता है,
सच और झूठ किसे समझाना, हरकतों से तो लाचार है।
परिणाम का डर किसे सीखाना, दृष्टी तो अभी नादान है,
प्रभु की राह किसे समझानी, प्रभु से तो वो अंजान है।
मीठे बोल किसे कहना, अंतर में न कोई सच्चाई है,
अमीरी पे क्या नाज़ करना, इन्सान बनना जिसे न आता है।
स्वीकार किस व्यवहार को करना, व्यवहार के पीछे तो स्वार्थ है,
अधीरता को क्या समझाना, धीरज न उसमें बसा है।
विज्ञान को क्या सिध्धी दिखाना, प्रभु की शक्ति से वो अंजान है,
प्राणों की क्या रक्षा करना, प्राणों को न अभी कोई समझा है,
पल पल में क्या सीखा, आखिर सिर्फ मरने की तैयारी है।
- डॉ. हीरा