मुहोब्बत क्या चीज है, हम नहीं जानते
मुहोब्बत को कैसे पहचानते हैं, हम नहीं जानते।
मुहोब्बत में क्या रिश्ता होता है, वो हम नहीं जानते
मुहोब्बत से क्या मिलता है, हम नहीं पहचानते।
क्या अस्तित्व मेरा रहता है, क्या खुद को मिटा देते हैं?
क्या गरीब हम बनते हैं, या अपनी अमीरी में मस्त रहते हैं?
क्या कोई भान रहता है? क्या कोई अरमान रहता है?
क्या अपनी पहचान रहती है? क्या कुछ होश रहता है?
क्या जन्नत का दर्शन होता है? या हर पल जन्नत होती है?
क्या मुहोब्बत ही भगवान है? या फिर भगवान में ही मुहोब्बत है?
ये हम नहीं जानते, ये हम नहीं पहचानते
जब हम, हम ही न रहें, तो हम कैसे कहें की हम क्या जानते
मुहोब्बत करते गए और मुहोब्बत में खेलते रहे।
सुकून से झूलते रहे, ईबादत में फनाह होते रहे।
- डॉ. हीरा