प्यार में जितना संभलना चाहा, उतना ही गिरते रहे,
प्रेम में जितना समर्पण करना चाहा, उतना ही फँसते रहे।
ये अगर-मगर की दुनिया में खुद का ही पता न चला,
खुद को पहचानना चाहा, अहंकार का ही नज़ारा मिला।
कैसे निकलें, यह ही सोचते रह गए हम,
अपने इस हाल पर रोते रहे हम।
जागृत होना चाहा, अपनी पहचान ढूँढनी चाही,
पर खुद के विचारों के अँधेरे में खोते रहे हम,
कि ऐ खुदा, तेरे दामन पर आकर भी रोते रहे हम।
तू ही बचा सकता है, तू ही निकाल सकता है,
तेरी ही इस कृपा के लिए तड़पते रहे हम।
- डॉ. हीरा