ये किस्मत का खेल कैसा है,
कोई अमीर है तो कोई गरीब है।
ये कर्मो का खेल कैसा है,
कि कोई सुखी है तो कोई दुःखी है।
ये विचारों का बांध कैसा है,
कि कोई परेशान है तो कोई आज़ाद है।
ये भावों का खेल कैसा है,
कि कोई मोह में है तो कोई प्रेम में है।
ये इच्छाओं का खेल कैसा है,
कि कोई गुलाम है तो कोई फुर्सत में है।
आखिर पूरी खेल में, बंदा बंधा हुआ है,
न कुछ उसके हाथ में, न कुछ उसके समझ में है।
वह तो सिर्फ एक कठपुतली है,
अपने बंधनो का या फिर उस परवरदिगार का।
- डॉ. हीरा