महकती कलियों के आधार पर जग मुस्कुराता है,
इश्क के वादे करके, वह अपने आप को भूलता है,
जन्मो जन्म के फेरे बाँध के, सेहरा पहनता है,
कि अपनी असलियत को वह भूलता है।
यकिन है उसे कि जीवन एक संधर्श ही है,
फिर भी अपने जज्बातों में ही वह खेलता है।
पनाह अपने विश्वास में वह खोजता है,
पर अपनी बुद्धि के बल पर खोता है।
आज़ादी के नारे लगाता है,
पर गुलामी की बेड़ी में ही जीता है।
जीवन को बार बार ऐसे ही बिताता है,
मंजिल अपनी बार बार ढूँढता है।
यह जग आखिर मुस्कुरा कर रोना सिख लेता है,
अपना ही वजूद न जाने कहाँ खो देता है।
आलस में जीने का सहारा पाता है,
यह जग, खुदा के हवाले, इस तरह सौंपता है,
अपने ही दंभ में न जाने क्या क्या करता है।
- डॉ. हीरा