तकदीर तकदीर क्या करते हो, अपने हाथों में है अपनी लकीर,
तकदीर अपनी लिखो तुम, हाथों में है तुम्हारी जिंदगानी।
न छोड़ो सब किस्मत पे, आखिर किस्मत भी है अपनी ही महरबानी।
न कुछ हो सकता बिना अपनी मरजी, ये है अपनी ही जिम्मेदारी।
रो ना अपनी तकदीर पे तुम, कि तकदीर न हँसे अपने पे।
अपनी राह तुम खुद ही चुनो और हाथों की लकीरों को तुम लिखो।
न भगवान को ना कर्मों को कोसो, कोसो सिर्फ अपनी आदतों को।
पहचानों तुम अपनी हकीकत को, न दूसरों से तुम तुलना करो।
जहाँ आज तुम खड़े हो, वो तुम्हारी ही दी हुई महरबानी है।
अब ढूँढों अपनी पहचान को, और आगे बढ़ो जवाबदारी से।
- डॉ. हीरा