ये ‘तेरा–मेरा’ का खेल चलता जाए,
माया के जाल में इंसान फँसता जाए,
अपनी सोच में वह डूबता जाए,
आखिर अपने आप को भूलता जाए।
फायदे-नुकसान में जूझता जाए,
अपने आप में ही सब को खोता जाए,
परवरिश में मैल डालता जाए,
आखिर संस्कारों में संघर्ष मिलाता जाए।
दैविक संस्कारों को त्यागता जाए,
दानव वृत्ति में खेलता जाए,
हर दम अपने बारे में ही सोचता जाए,
आखिर लेने-देने में ही वो रहता जाए।
गुलाम अपने मन को बनता जाए,
जानवरों की तरह जीता जाए,
समझ पर ताले लगाता जाए,
आखिर अपने आप को बाँधता जाए।
रिश्तों में खुशी ढूंढता जाए,
जीवन में गम को पालता जाए,
अँधेरों की गहराइयों में डूबता जाए,
आखिर अपनी पहचान खोता जाए।
हार-जीत के अफसाने में घुलता जाए,
यारों से ही ईर्ष्या करता जाए,
दंभ और आड़ंबर में खेलता जाए,
आखिर ये इंसान अपने आप में ही जीता जाए।
- डॉ. हीरा