चंचल ये मन इतना, चाहता है नया कुछ हर बार,
और गुँठता रहता है, इच्छाओं का असीम पहाड़।
जानता है कि फिर से न जाने कितने जन्म मिलेंगे,
फिर भी छोड़ता नहीं ये रटन अपना हर एक बार।
चाहतों के मेले में खोता जाता है वो और भी गहरा,
कि नई चाहत बनाता है, वो आसानी से एक बार।
फिर ग़म हो या खुशी, वो तो अपनी चाहत में खोता,
और हर पल लगे उसे जैसे बीते हैं कई साल।
आत है न हमारे काबू में, बजाय है हम उसके काबू में,
गुलामी हमसे करवाता, फिर भी कहते हैं चाहत हो जाए एक बार।
- डॉ. हीरा